Dr. Neelam

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दो कतरे की प्यास

*दो कतरे की प्यास*

नौ मास कोख की
तपती धरा में
तृषित रही
अनचाही थी
तभी भीतर ही
भीतर सुलगती रही
कभी दुलार से
जननी ने भी
सहलाया था मेरा भ्रूण
निकल आई
अंधियारी
कोख- ए- गुफा से
तो भी न मिली
माँ के अमृत की बूँद
बनी रही तभी से
*दो कतरे की प्यास*।

जस-तस उम्र
के सौपान चढ़ी
यौवन की दहलीज
पर बदनजर की
भेंट चढ़ी
झूठे प्यार के कलश
भर-भर उडेले
यौवन पर
मगर न मिले सच्चे
प्यार के दो कतरे
हर रात दुल्हन बन
सेज चढ़ी
देह-घट में हवस-जल
भरती रही
पर गृहस्थी की
दहलीज न मिली कहीं
अंकशायिनी होकर भी
अतृप्त आत्मा को रही
*दो कतरे की प्यास*।

अनचाही,अवांछित
कन्या
भरे-पूरे घर में 
अपने एक न कोने
को तरसती
मायके में भी 
सदा रही पराई
दहेज जोड़ना है
ससुराल में भी 
पराई ही रही
बेचारी मन को मार
गृहस्थी का बोझ
उठाए चलती है
रिश्तों के मोती-जल
को फीका न
होने देती है
मगर भीतर ही भीतर
उसके मनः प्राण की
सूखी नदी को है
*दो कतरे की प्यास*।

       डा.नीलम

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6 Comments

Mohammed urooj khan

16-Apr-2024 10:43 PM

👌🏾👌🏾👌🏾👌🏾

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Gunjan Kamal

08-Apr-2024 08:04 PM

शानदार

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Varsha_Upadhyay

07-Apr-2024 09:57 PM

Nice

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